सिनेमा और समाज- द कश्मीर फाइल्स
Cinema and Society - The Kashmir Files
आज़ादी से पूर्व कश्मीर का एक सुनहरा सांस्कृतिक इतिहास रहा है जिसने भारत की धरती को अपनी ज्ञान गंगा से सींचा और उपजाऊ बनाया है लेकिन आज़ादी के बाद घृणा और स्वार्थ की राजनीती ने इसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत इससे छीन ली और अबोध बचपन के हांथों में बन्दूक थमा दी । बचपन तो सभी का कोरे कागज़ की तरह ही होता है लेकिन जब उस पर राजनैतिक षडयंत्र की धूर्त और विधर्मी सोंच का ग्रहण लग जाता है तब वो भयावह रूप धारण कर लेता है , वैचारिक चेतना मर सी जाती है ...कर्म और कुकर्म , धर्म और अधर्म , नीति -अनीति , रिश्ते -नाते सभी का पशुविक रूप आतंकवाद के रूप में उभर कर समाज का विनाश करना शुरू कर देता है ।
ये सारे विघटनकारी तत्व कश्मीर के संदर्भ में तब पहली बार सामने आये जब १९४६ में शेख अब्दुल्ला ने 'महाराजा कश्मीर छोड़ो ' आन्दोलन चला कर विद्रोह कर दिया था । १९३२ में सरदार पटेल के सचिव वी शंकर की किताब ' सरदार पटेल का चुना हुआ पत्राचार ' से कुछ ऐसे तथ्य प्रकशित हुए हैं जिससे पता चलता है कि उस समय भी मुस्लिम हितों के बहाने शेख अब्दुल्ला कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाना की जद्दोजहद में लगे हुए थे । सच तो यह है इसमें वह सिर्फ अपना राजनैतिक स्वार्थ तलाश रहे थे ।
१९४७ में आखिरी वायसराय लार्ड माउन्टबेटन ने महाराजा हरी सिंह को अपनी राय दी वो तय कर लें कि किस देश से जुड़ना चाहतें हैं । कश्मीर पर कबाइलियों , पख्तूनों और पाकिस्तानी फौज ने आक्रमण कर दिया और महाराजा ने मजबूर होकर भारत से मदद मांगी । राजा की सैन्य शक्ति क्षीण होने के कारण वह अपने राज्य की सुरक्षा करने में असमर्थ थे । वायसराय को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने बताया कि ये आक्रमण पाकिस्तान द्वारा रचा गया था - उन्होंने उसमें स्त्रियों के अपहरण , बलात्कार ,हत्याओं और लूटपाट का ज़िक्र भी किया था । अपनी मजबूरी को बयान करके उन्होंने भारत से मदद मांगने की विवशता क उल्लेख करते हुए भारत से जुड़ने के लिए स्वीकृति के दस्तावेज भेजने की बात भी बताई थी ।
राजनैतिक द्वेष और स्वार्थ का ये खेल उसी समय से अपनी जड़ें और ज़माने लगा था , निरंतर भय और आतंक का वातावरण सिर्फ इसीलिए योजनाबद्ध तरीके से पैदा किया जाने लगा था जिससे कश्मीर पर धार्मिक उन्माद का राज्य स्थापित किया जा सके और वहाँ की प्राचीन संस्कृति , साहित्य ,संगीत , दर्शन का भयावह अंत कर उस पूर्णतया इस्लामिक राज्य की स्थापना की जा सके । १९९० के धार्मिक संहार के उद्देश्य को , ' द कश्मीर फाइल्स ' के पूरे कथानक में देखा जा सकता है , जो निर्देशक विवेक अग्निहोत्री द्वारा संकलित तथ्यों के आधार पर बनी है । जातीय और धार्मिक संहार की इस पटकथा में कुछ दृश्य बहुत बड़ी त्रासदी और नस्लीय कत्लेआम को दर्शातें हैं जो यथार्थ का क्रूरतम रूप होने के बावजूद भी दर्शकों को द्रवित कर जाता हैं और जिहोनें इसे भोगा है उन्हें रक्त से आच्छादित उस बर्फीली रात की याद दिला जाते है जो ३२ वर्ष से उनके सीने में शूल की तरह गड़ी हुई है । उनके दुःख की कहानी सुनने से भी कुछ संवेदनहीन लोगों को एतराज है , कुछ अजीब ही विडम्बना है ये ।
वास्तव में यह फ़िल्म अपने विषय और विषय वस्तु के कारण लोगों के अंतस को प्रभावित कर रही है । राजनैतिक दुष्प्रचार और षडयंत्र में लिप्त कॉलेज स्टूडेंट्स के तंत्र का प्रदर्शन इस फ़िल्म को समाज और राजनीती ने नये आयामों से जोड़ता है और एक विचित्र मानसिकता जो देश , काल और सामाजिक संतुलन के विरुद्ध जाती है , का सशक्त प्रदर्शन करता है ।
फ़िल्म के कुछ दृश्यों में जैसे कि फिल्म के अंत का द्रश्य है जिसमें जे. के .एल .एफ का खूंखार आतंकवादी बिट्टा कराटे सामूहिक हत्यायें करता है , में प्रकाश की मात्रा बहुत ही कम थी जबकि ऐसे तनाव पूर्ण वातावरण में प्रकाश का उपयोग भावनातमक गतिशीलता को बढ़ाने में बहुत उपयोगी सिद्ध होता है और उसके एक एक फ्रेम को परिभाषित करता है , सभी पात्रों की भाव भंगिमा को सहजता से दर्शनीय बना देता है । चरित्रों के अभिनय के साथ दृश्य प्रस्तुति में प्रकाश प्रबंधन बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और भाव व्यंजना को प्रवाहमय बनाता है मगर हो सकता है इसमें निर्देशक का अपना कोई दृष्टिकोण रहा हो ।
फ़िल्म की स्क्रिप्ट , संवाद और निर्देशन एक दूसरे से अच्छा सामंजस्य बनाते हैं और विषय वस्तु के साथ न्याय करते हैं । अलग अलग घटनाओं के प्रदर्शन का क्रम बहुत सुगढ़ और संगठित प्रतीत होता है । अभिनेताओं में विशेषकर पल्लवी जोशी ने अपने रोल के साथ पूरा न्याय किया है । दर्शन कुमार युवा शिक्षण संस्थान के नेता के रूप में काफी सशक्त अभिनय का परिचय देते हैं और साथ ही साथ राजनैतिक प्रपंच से दिग्भ्रमित छात्रों के व्यक्तित्व को उजागर करते हैं । विश्विद्यालयों में प्रसारित विघटनकरी सोंच जो किसी राजनैतिक लाभ और लोभ की जड़ों से निकलकर युवा बुद्धि को ग्रसित कर रही है , का चरित्र चित्रण दर्शन कुमार ने एक सीन में तथ्य भरे संवाद से प्रमाणित करने बहुत अच्छा प्रयास किया है ।
फ़िल्म का कलर पैलेट विषयानुरूप है जो लगभग पूरी फिल्म पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ता है और दृष्टि प्रभाव के हिसाब से विषय के अनुरूप सटीक अभिव्यक्ति में रूपांतरित हो जाता है । किसी भी फ़िल्म में रंग पट्टिका का प्रभाव बहुत कम फिल्मों में देखने को मिलता है , विशेकर भारतीय फिल्मो में क्यूंकि समय की कमी , अत्यधिक बाजारू नजरिया और बड़े फिल्मी कलाकारों या सितारों की तमाम शर्तें इस तरह के प्रयोगों के लिए कोई स्थान ही नहीं छोड़ती । नाट्य , चलचित्र और चित्र सभी में आंतरिक और बाह्य परिवेश के अनुसार रंग फलक चयन करने की आवश्यकता होती है और इस फ़िल्म में काफी हद तक इसका उपयोग देखने को मिला ।
अनुपम खेर ने पुष्कर नाथ और मिथुन चक्रवर्ती ने ब्रम्ह भट्ट कश्मीरी पंडित के किरदारों को बहुत शिद्दत से निभाया है । वो दृश्य बहुत ही भयानक और स्तब्ध करने वाला है जिसमें पुष्कर नाथ के घर में बिट्टा कराटे अपने कुछ आतंवादी साथियों के साथ आता है उसके बेटे की हत्या करने के बाद उसी की बहु को पति के खून से सने चावल खिलाता है । इस दृश्य को देखने के लिए भी बहुत साहस और ईमान की ज़रुरत पड़ती है लेकिन जिन लोगों ने सीधा इस यातना को झेला है शायद ही वो स्वयं इसे व्यक्त करने की स्थिति में रहे होंगे ।
इस चित्रपट का अंतिम दृश्य देखकर द्वितीय वर्ल्ड वार के समय हिटलर द्वारा किया गया यहूदियों का सामूहिक नर संहार और जोसफ स्तालिन की तानाशाही में हुए किसानों के नरसंहार की याद दिला दी । इस लेख को लिखने के पीछे मेरा मानवतावादी दृष्टिकोण के आलावा कोई उद्देश्य नहीं है , सिर्फ इतना ही प्रयास है कि समाज इन सारी घटनाओं का खुद मूल्यांकन करे और इस तरह की क्रूरता समाज के किसी भी वर्ग के साथ फिर घटित न होने दे । शक्ति और राजनैतिक लोलुपता धर्म का उपयोग कर इंसानी समाज को किस अंजाम पर पहुंचा देती है , इसका गवाह इतिहास है जिसे झूठ की कठोर परतों को तोड़कर अब सच का चेहरा दिखाना ही होगा ।
सभी से एक आग्रह है कि घृणा की रक्तरंजित नदी को सभ्य समाज की दहलीज तक न आने दें । जानता हूँ कुछ लोग इसे अपने धर्म या मजहब के नजरिये से और कुछ लोग अपने राजनैतिक विचारधारा की जड़ता में अलग होकर समझने का प्रयत्न नहीं करेंगे , फिर भी यही विनती है कि अपनी जटिल और जड़ विचारधारा के खोल से बाहर निकल कर सिर्फ मानव समाज के बारे में मनन करें जिसमें वह शांति से अपने परिवार के साथ रहना , शिक्षा प्राप्त करना , उन्नति करना , साहित्य और कला का सृजन करना चाहता है बिना किसी मानसिक और शारीरिक अपघात के । धन्यवाद
आपने अपने शब्दों के द्वारा बहुत ही अच्छी जानकारी दी,धन्यवाद!!
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