ART UNIVERSE AND BEAUTIFUL MIND

Art universe and creativity,art and social consciousness , art education and its impact on society

Times' Transmission paintings Solo Show 2011

 


 

TIME'S TRANSMISSION  

This series was based on a phenomenal feature of Nature we call it Time. Besides more than 15 paintings I executed 7 sculptures based on the above mentioned theme . Life like an endless ocean keeps moving on and on with a kind of inexplicable consciousness which we can feel only but can't see, that makes us feel    alive to act  and whenever we lose it life reaches to it end. ..Time is that consciousness but I tried to feel it and express it in tangible form of art though I know I can't .

  time's tune , oil on canvas 36''x 36''


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 time unbound ,oil on canvas ,36''x 36''



 

winner's pride , 72'' x 72' x 32'' , fiber, wood, bronze foil 


सिनेमा और समाज - द कश्मीर फाइल्स - ( Cinema and society -The Kashmir Files)


 

   सिनेमा और समाज- द कश्मीर फाइल्स 

         Cinema and Society - The Kashmir Files  

 

आज़ादी से पूर्व कश्मीर का एक सुनहरा सांस्कृतिक इतिहास  रहा है जिसने भारत की धरती को अपनी ज्ञान गंगा से सींचा और उपजाऊ बनाया है लेकिन आज़ादी के बाद घृणा और स्वार्थ की राजनीती ने इसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत इससे छीन ली और अबोध बचपन के हांथों में बन्दूक थमा दी । बचपन तो सभी का कोरे कागज़ की तरह ही होता है लेकिन जब उस पर राजनैतिक षडयंत्र की धूर्त और विधर्मी सोंच का ग्रहण लग जाता है तब वो भयावह रूप धारण कर लेता है , वैचारिक चेतना मर सी जाती है ...कर्म और कुकर्म , धर्म और अधर्म , नीति -अनीति , रिश्ते -नाते सभी का पशुविक रूप आतंकवाद के रूप में उभर कर समाज का विनाश करना शुरू कर देता है ।

 ये सारे  विघटनकारी तत्व कश्मीर के संदर्भ में तब पहली बार सामने आये जब १९४६ में शेख अब्दुल्ला ने 'महाराजा कश्मीर छोड़ो ' आन्दोलन चला कर विद्रोह कर दिया था । १९३२ में सरदार पटेल के सचिव वी शंकर की किताब ' सरदार पटेल का चुना हुआ पत्राचार ' से कुछ ऐसे तथ्य प्रकशित हुए हैं जिससे पता चलता है कि उस समय भी मुस्लिम हितों के बहाने शेख अब्दुल्ला कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाना की जद्दोजहद में लगे हुए थे । सच तो यह है  इसमें वह सिर्फ अपना राजनैतिक स्वार्थ तलाश रहे थे । 

 १९४७ में आखिरी वायसराय लार्ड माउन्टबेटन ने महाराजा हरी सिंह को अपनी राय दी वो तय कर लें कि किस देश से जुड़ना चाहतें  हैं । कश्मीर पर कबाइलियों , पख्तूनों और  पाकिस्तानी फौज ने आक्रमण कर दिया और महाराजा ने मजबूर होकर भारत से मदद मांगी । राजा की सैन्य शक्ति क्षीण होने के कारण वह अपने राज्य की सुरक्षा करने में असमर्थ थे । वायसराय को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने बताया कि ये आक्रमण पाकिस्तान द्वारा रचा गया था - उन्होंने उसमें स्त्रियों  के अपहरण , बलात्कार ,हत्याओं और लूटपाट का ज़िक्र भी किया था । अपनी मजबूरी को बयान करके  उन्होंने भारत से मदद मांगने की विवशता क उल्लेख करते हुए  भारत से जुड़ने के लिए स्वीकृति के दस्तावेज भेजने की बात भी बताई थी ।

राजनैतिक द्वेष और स्वार्थ का ये खेल उसी समय से अपनी जड़ें और ज़माने लगा था , निरंतर भय और आतंक का वातावरण सिर्फ इसीलिए योजनाबद्ध तरीके से पैदा किया जाने लगा था जिससे कश्मीर पर धार्मिक उन्माद का राज्य स्थापित किया जा सके और वहाँ  की  प्राचीन संस्कृति , साहित्य ,संगीत , दर्शन का भयावह अंत कर उस पूर्णतया  इस्लामिक राज्य की स्थापना  की  जा सके । १९९० के धार्मिक संहार के उद्देश्य को , ' द कश्मीर फाइल्स ' के पूरे कथानक में देखा जा सकता है , जो निर्देशक विवेक अग्निहोत्री  द्वारा संकलित तथ्यों के आधार पर बनी  है । जातीय और धार्मिक संहार की इस पटकथा में कुछ दृश्य बहुत बड़ी त्रासदी और नस्लीय कत्लेआम को दर्शातें हैं जो यथार्थ का क्रूरतम  रूप होने के बावजूद भी  दर्शकों को द्रवित कर जाता  हैं और जिहोनें इसे भोगा  है उन्हें रक्त से आच्छादित उस बर्फीली रात की याद दिला जाते है जो ३२ वर्ष से उनके सीने में शूल की  तरह गड़ी हुई है  । उनके दुःख की कहानी सुनने से भी कुछ संवेदनहीन लोगों को एतराज है , कुछ अजीब ही विडम्बना है ये ।

वास्तव में यह फ़िल्म अपने विषय और विषय वस्तु  के कारण लोगों के अंतस को प्रभावित कर रही है । राजनैतिक दुष्प्रचार और षडयंत्र में लिप्त कॉलेज स्टूडेंट्स के तंत्र का प्रदर्शन इस फ़िल्म को समाज और राजनीती ने नये आयामों से जोड़ता है और एक विचित्र मानसिकता जो देश , काल और सामाजिक संतुलन के विरुद्ध जाती है , का सशक्त प्रदर्शन करता है ।

फ़िल्म के कुछ दृश्यों में  जैसे कि फिल्म के अंत का द्रश्य है जिसमें जे. के .एल .एफ का खूंखार आतंकवादी बिट्टा कराटे सामूहिक हत्यायें करता है , में  प्रकाश  की मात्रा बहुत ही कम थी  जबकि ऐसे  तनाव पूर्ण वातावरण में प्रकाश का उपयोग भावनातमक गतिशीलता को बढ़ाने  में बहुत उपयोगी सिद्ध होता है और उसके एक एक फ्रेम को परिभाषित करता है , सभी पात्रों की भाव भंगिमा को सहजता से दर्शनीय बना देता है । चरित्रों के अभिनय  के साथ दृश्य प्रस्तुति में प्रकाश प्रबंधन बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और भाव व्यंजना  को प्रवाहमय  बनाता है मगर हो सकता है इसमें निर्देशक का अपना कोई दृष्टिकोण रहा हो ।


फ़िल्म की स्क्रिप्ट , संवाद और निर्देशन एक दूसरे से अच्छा सामंजस्य बनाते हैं और विषय वस्तु के साथ न्याय करते हैं । अलग अलग घटनाओं के  प्रदर्शन का क्रम बहुत सुगढ़ और संगठित प्रतीत होता है । अभिनेताओं में विशेषकर पल्लवी जोशी ने अपने रोल के साथ पूरा न्याय किया है । दर्शन कुमार युवा शिक्षण संस्थान के नेता के रूप में काफी सशक्त अभिनय का परिचय देते हैं और साथ ही साथ राजनैतिक प्रपंच से  दिग्भ्रमित छात्रों  के व्यक्तित्व को उजागर करते हैं । विश्विद्यालयों में प्रसारित  विघटनकरी सोंच जो किसी राजनैतिक लाभ और लोभ की जड़ों से निकलकर युवा बुद्धि को ग्रसित कर रही है , का चरित्र  चित्रण दर्शन कुमार ने एक  सीन में  तथ्य भरे संवाद से प्रमाणित करने बहुत अच्छा प्रयास किया है ।

फ़िल्म का कलर पैलेट विषयानुरूप है जो लगभग पूरी फिल्म पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ता है और दृष्टि  प्रभाव के हिसाब से  विषय के अनुरूप सटीक अभिव्यक्ति में रूपांतरित हो जाता है । किसी भी फ़िल्म में रंग पट्टिका का प्रभाव बहुत कम फिल्मों में देखने को मिलता है , विशेकर भारतीय फिल्मो में क्यूंकि समय की कमी , अत्यधिक बाजारू नजरिया और बड़े फिल्मी कलाकारों  या सितारों  की  तमाम शर्तें इस तरह के प्रयोगों के लिए कोई स्थान ही नहीं छोड़ती । नाट्य , चलचित्र और चित्र सभी में आंतरिक और बाह्य परिवेश के अनुसार रंग फलक चयन करने की आवश्यकता होती है और इस फ़िल्म में काफी हद तक इसका उपयोग देखने को मिला । 

अनुपम खेर ने पुष्कर नाथ और मिथुन चक्रवर्ती ने ब्रम्ह भट्ट कश्मीरी पंडित के  किरदारों  को  बहुत शिद्दत से निभाया है । वो दृश्य बहुत ही भयानक और स्तब्ध  करने वाला है जिसमें पुष्कर नाथ के घर में बिट्टा कराटे अपने कुछ  आतंवादी साथियों के साथ आता है  उसके बेटे की हत्या करने के बाद उसी की बहु को पति के खून से सने चावल खिलाता है । इस दृश्य को देखने के लिए भी बहुत साहस और ईमान की  ज़रुरत पड़ती है लेकिन जिन लोगों ने सीधा इस यातना को झेला है शायद ही वो स्वयं  इसे व्यक्त करने की स्थिति में रहे होंगे । 

इस चित्रपट का अंतिम दृश्य देखकर द्वितीय वर्ल्ड वार के समय हिटलर द्वारा किया गया  यहूदियों का सामूहिक नर संहार और जोसफ स्तालिन की तानाशाही में हुए किसानों के नरसंहार की याद दिला दी  । इस लेख को लिखने के पीछे मेरा मानवतावादी दृष्टिकोण के आलावा कोई उद्देश्य नहीं है , सिर्फ इतना ही प्रयास है कि समाज इन सारी  घटनाओं का खुद मूल्यांकन करे और इस तरह की क्रूरता समाज के किसी भी वर्ग के साथ फिर घटित न होने दे । शक्ति और राजनैतिक लोलुपता धर्म का उपयोग कर इंसानी समाज को किस अंजाम पर पहुंचा देती है , इसका गवाह इतिहास है जिसे झूठ की कठोर परतों को तोड़कर अब सच का चेहरा दिखाना ही होगा ।

 सभी से एक आग्रह है कि घृणा  की  रक्तरंजित  नदी को सभ्य समाज की दहलीज तक न आने दें । जानता हूँ कुछ लोग इसे अपने धर्म या मजहब के नजरिये से और कुछ लोग अपने राजनैतिक विचारधारा की  जड़ता में  अलग होकर समझने का प्रयत्न नहीं करेंगे , फिर भी यही विनती है  कि अपनी जटिल और जड़ विचारधारा के खोल से बाहर  निकल कर सिर्फ मानव समाज के बारे में मनन करें जिसमें वह शांति से अपने परिवार के साथ रहना , शिक्षा  प्राप्त करना , उन्नति करना , साहित्य और कला का सृजन करना चाहता  है  बिना किसी मानसिक और शारीरिक अपघात के । धन्यवाद 




कला शिक्षा और सामाजिक उत्थान ( ART EDUCATION AND SOCIAL CONSCIOUSNESS )


                      कला शिक्षा और सामाजिक उत्थान 

ART EDUCATION AND SOCIAL CONSCIOUSNESS

                 ब्रह्माण्ड के स्वरुप में व्याप्त तत्व ,उनकी गतिविधियों , गतिशीलता और प्रकृति का प्रत्यक्षीकरण और अवलोकन करने का रोमांच और जिज्ञसा मानव का मूल स्वाभाव रहा है । अन्वेषण और विश्लेषण की इस प्रक्रिया में ज्ञानेन्द्रियाँ और आत्मिक बोध के समन्वय से धीरे धीरे उसमें रचनात्मक प्रक्रिया के माध्यम से अनुभूति को व्यक्त करना , उसके लिए  प्रतीकों का उपयोग करना , नए साधनों की खोज करना , सौंदर्य के साथ भावना का प्रदर्शन करना , समाजिक प्रतरोध करना और अपने दैनिक क्रिया कलापों को व्यक्त करना आ गया । इस संपूर्ण प्रक्रिया में कला नए नए रूप धरण करती रही और प्रतीकों और ध्वनि के समागम ने शब्दों  की अवधारणा को जन्म दिया, ऐसा मेरा अनुमान है ।

प्रकृति वो सत्य है जिसमें मानव जीवन का सम्पूर्ण दर्शन निहित होता है जो मानव की प्रत्येक क्रिया और प्रतिक्रिया में परिलक्षित होता है । इसीलिए जन्म से ही बच्चे में प्रयाक्षिकरण , परिस्थिति जन्य प्रतिक्रिया , संवेदनात्मक ,शारीरिक -मानसिक विशेषताओं के विकास में  सौन्दर्यनुभूति और अभिव्यक्ति  के स्वाभविक गुणों का विशेष महत्त्व होता है ।

वनींद्र नाथ टैगोर के शिष्य नंदलाल बोस का कथन है ' कला शिक्षण का लक्ष्य कलाकार को जन्म देना या किसी बच्चे  को कलाकार बनाना नहीं है बल्कि उसमें आत्मबोध , कला चेतना जगाना और उसकी कलात्मक क्रियाओं का विकास करना है ।' उनका ये कथन इसलिए सत्य प्रतीत होता है क्यूंकि कला निर्मिती एक जन्मजात गुण है और ये बात पूर्णतया सच भी है कि किसी को कितनी भी उच्च कोटि के शिक्षण संसथान में कला की शिक्षा दी जाये वो स्वाभविक कलाकृति निर्मित नहीं कर सकता , यदि करेगा भी तो वो अस्वाभाविक और सिर्फ रूपाकारों का आत्मा विहीन संयोजन मात्र  होगा , उसका अनुभूतिक सत्य और कल्पना उसमें लेशमात्र भी प्रदर्शित नहीं होगी ।

भारतवर्ष की कला परम्परा में प्रकृति के चैतन्य , आत्मबोध और अलौकिक सत्ता को विशेष महत्त्व दिया गया है जो विशेषकर लोककला शैलियों में अमूर्त ईश्वरीय शक्ति को साध्य मानकर जीवन के हर पक्षों  और प्रतीकों का चित्रण सरल रूपाकारों में किया जाता है जिसमें उनकी स्थानीय सामाजिक संरचना , संस्कृति और आस्थाओं का परिचय मिलता है । इस तरह कि अभिव्यक्ति की शिक्षा किसी विशेष कला विद्यालय से नहीं लेने कि आवश्यकता पड़ती बल्कि ये उनको परिवार के संस्कारों और परम्पराओं से प्राप्त होती है । कहीं न कहीं व्यक्ति के स्वाभाविक सौन्दर्य बोध के साथ साथ इसमें आस्था और संकृति का मिश्रण होता है इसका अर्थ यही है कि मानव व्यक्त करने के विभिन्न रूपों का आविष्कार अपनी सृजनात्मक  क्षमता  के आधार करने का निरंतर प्रयत्न करता है । सिर्फ अभ्यास और तकनीकी कभी कला कृति में भावनात्मक ऊर्जा का संचरण नहीं करते ।

कला के विकसित अनेक रूपों में आधुनिक कला ने जिस गति उन्नीसवीं  और बीसवी सदी में विकास किया है वो विज्ञान , दर्शन और बदलती सामाजिक मान्यताओं के बदलता चला गया ।

                                                              बंधक आत्माएं , ३६'' - ३६'',

 कला शिक्षण की अनिवार्यता ---  भारत में १९२०-२१  रविंद्रनाथ  टैगोर के सहयोग से शान्तिनिकेतन की स्थापना  हुई जिसमें  कला संकाय को धीरे धीरे विकसित किया गया जहाँ प्रकृति के सानिध्य में कलाकार स्वच्छंद रूप से सृजन कर सकें । इसमें भारत की  प्राचीन आश्रम  पद्यति की  शिक्षण परंपरा  जिसमें गुरु -शिष्य के मध्य स्वतंत्र वैचारिक आदान प्रदान होता था , को प्रोत्साहित किया गया । प्रकृति के सहज सानिध्य में आत्म चिंतन और मनन की रचनात्मक प्रक्रिया को विशेष स्थान दिया गया जहाँ शांत वातावरण में नृत्य , संगीत , नाट्य ,चित्रकला आदि विषयों का अद्यापन किया जा सके ।

 इस विश्वविध्लय को खोलने का मुख्य उद्देश बहुत मानवीय और विश्व बन्धुत्त्व की प्रेरणा से पूर्ण था जिसमें एशिया और पश्चिम देशों की संस्न्कृति को एक दूसरे को जानने और समीप आने का अवसर मिले जिससे विद्यार्थियों को दृष्टि को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर पहुंचता जा सके । दूसरा मुख्य उद्देश्य कि उनको उनकी रचनाधर्मिता के साथ साथ ग्राम्य जीवन को समझने का भी अवसर मिले । विचार विनिमय की प्रक्रिया में   कला के उन मानवीय गुणों को व्यवहारिक रूप देना भी था जिसमें सामान्य जन जीवन भी उसमें समाहित हो सके और ज्ञान का प्रचार समाज के सभी वर्गों में हो सके । इसकी स्थापना का मूल मंत्र रचनात्मक और सौहार्द पूर्ण वातावरण  का निर्माण करना था जिसमें  कला के  मानवीय  गुणों को संजो कर एक  ऐसे सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की जाये  जिसमें सभी सभ्यताओं और धर्मों के साहित्य , विज्ञान और इतिहास को पढ़ाया जा सके ।

आज भी गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के विचार से विशेषकर कला विद्यालयों  की स्थापना की जाये तो कलाकार अनेक ऐसी औपचारिकताओं और कुंठाओं से बच सकता है जो उसकी रचनाशीलता और कला कर्म  में सामान्य जीवन  और विश्व बन्धुत्त्व का भाव  नहीं जगा पाती । ऐसी कला पद्यति है जिसमें कलाकार  कृत्रिम प्रचार के प्रति अनियंत्रित मोह  , कल्पना का संकुचन , स्व निर्मित कला की निरंतर  पुनरावृत्ति से बाज़ार में बना रहने की प्रवित्ति , प्रसिद्धि और प्रचार के कुचक्र में फँस कर अपने मूल उद्देश्य को भूल जाना , त्वरित सफलता के भ्रम में उलझ कर स्थापित कलाकारों की नक़ल करना , किसी अन्य से कलाकृति बनवा कर अपने नाम से प्रदर्शित करना , आधुनिकता के नाम पर अपनी कला कृतियों को तमाम संसाधनों से इतना कृत्रिम बना देना जिसमें भावासंवेग की ऊर्जा ही न हो, इत्यादि से बच सकता है ।

 वैसे तो स्वतंत्रता के पश्चात् सरकारों ने कला शिक्षण के कई प्रारूपों को समय समय पर भारतीय संकृति और सभ्यता के प्रसार और ज्ञान को कला  संकायों और शिक्षा प्रणाली से जोड़ने का प्रयास किया है फिर भी अभी इनसे संबधित सांस्क्रतिक  और मानव संसाधन विकास मत्रालयों को बहुत कुछ करने की  आवश्यकता है और उसे व्यवहारिक रूप से लागू करने कि जिम्मेदारी भी । 

कला के अध्यन और अध्यापन से निसर्ग की ओर शिशु मन का  नये नये उद्दीपकों को खोजने का प्रयास करता है और आकर्षित होता है । ये सृजन प्रक्रिया का वो बिंदु है जिसमें रचनात्मक ऊर्जा का सहज विकास होता है और मौलिक चिंतन से व्यक्तित्व में गतिशीलता आती है । इससे वह अपने परिवेश में उपस्थित वतुओं और परिस्थितियों का अवलोकन अच्छे से करने योग्य हो जाता है ।

कला शिक्षण की पद्यति अगर प्रभावशाली हो तो बच्चे के व्यक्तित्व में अभिव्यकत   करने  की क्षमता ,प्रसार और सामजिक अंतर्क्रिया से समाज से जुड़ने का भाव उत्पन्न होता है । वह अलग अलग परिस्थितियों में स्वयं को व्यक्त करने का साधन तलशता है और अपने अचेतन में संचयित सभी अनुभवों को नये रूप में व्यक्त करने का प्रयास करता  है और  अनेक ऐसे अनुभव जो मन में किसी कुंठा या ग्रंथि का निर्माण कर व्यक्तित्व को  विघटित करते है , से सुरक्षित रहता है । लगातार प्रयासरत रहने से  भवनात्मक संतुलन के साथ मन में घटित अमूर्त अनुभव अपना मूर्त रूप धारण करते हैं  और सीखने की प्रक्रिया में ज्ञानेन्द्रियों को और सजग करते हैं ।

प्रायः ये देखने को मिलता है कि ज्यादातर कला विद्यार्थी अपनी  औपचारिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद  अपने भविष्य को लेकर एक अनचाही असुरक्षा की भावना का शिकार हो जाते हैं जिससे उनके सृजन के क्रियान्वयन में अवरोध उत्पन्न होता है । कला एक अनुभूतिक सत्य है लेकिन जीवन के संचालन  के बिना ये संभव नहीं इसलिए जीवकोपार्जन का कोई न कोई तो साधन चाहिए । यही वो बिंदु जहाँ विभिन्न परिस्थितियां  और स्वयं कलाकार निर्धरित करता है कि उसे किस दिशा में जाना है । दोनों ही स्थितियों में जीवन निरंतर अबाध गति से चलता है बस एक रचना कर्म में नयी नयी अनुभूतियों और प्रयोगों  के साथ और दूसरा अपनी अव्यक्त सत्ता और   शिथिल सृजन के साथ । इसका ये अर्थ नहीं कि इनमें शिक्षक बनने वाला व्यक्तित्व कला शिक्षण में प्रयोग और अपनी रचना धर्मिता नहीं निभाता , बहुत से ऐसे शिक्षक भी हो सकते है जो निरंतर अपने सृजन के प्रति भी बहुत सचेत रहते हैं । 

यहाँ मेरा कहने का अभिप्राय है कि कला की प्रगति के लिए राज्यकीय संस्थाओं को कोई ऐसी योजना का विकास कारण चाहिए जहाँ सक्रीय कलाकारों को ईमानदारी के साथ आर्थिक और नैतिक आधार के साथ साथ उनकी रचनाओं को प्रकाशित और प्रसारित भी किया जाये ।कला के क्षेत्र में आज भी कुछ गिने चुने कलाकारों को ही राजनैतिक संरक्षण की वजह से उच्च कोटि का कलाकार मन जाता है । यही चयन यदि कलाकृति के विशेष गुणों पर आधारित हो तो भारत वर्ष की कला भी और ऊंचा आसमान छू सकती है । 

नोट- शेष अगले भाग में ......। 

 

     


 

                                                                        

                      

कला चेतना और मानव समाज ( ART CONSCIOUSNESS AND HUMAN SOCIETY)

 


         
कला चेतना और मानव समाज

SILENCE OF TIME,OIL ON CANVAS ,72” X 48” BY SANJAY KUMAR SRIVASTAV

संसार में कोई भी देश ,समाज और युग ऐसा नहीं जिसमें राजनैतिक ,आर्थिक,धार्मिक और नस्लीय द्वन्द्ध न घटित हुआ हो और कलाकार उससे स्वाभाविक रूप से प्रभावित न हुआ हो । वह अपने समाज में अनुभूत तथ्यों , अभिव्यक्ति के स्वरुप, मानसिक -आध्यत्मिक चिंतन,समाज के प्रति अपने दायित्व , उत्थान और पतन, राजनैतिक आंदोलनों के प्रति सजग और सक्रिय न रहा हो । समाज में विभिन्न विचारधाराओं, आस्थाओं ,परम्पराओं से ऊपर उठकर किसी भी घटना-दुर्घटना , आन्दोलन या फिर राजनैतिक और सामाजिक प्रतिरोधों से उपजी अनुभूति को वह भावावेग के अनुसार व्यक्त करता है तो उसका व्यक्त करने का तरीका व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक हो जाता है । ये एक प्रमाणिक सत्य है कि कोई भी कलाकार जिस तरह की सभ्यता और संस्कृति के बीच पलता है,शिक्षित होता है और परिवेश में अंतर्क्रिया करता है, उसका उसके वैचारिक मंथन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है ;उसकी विशेष विषयों में रूचि, विशिष्ट शैली का विकास , रूपाकारों और बिम्बों की सहज निर्मिती ,आत्मबोध और कल्पना प्रक्रिया सब पर उसका असर देखा जा सकता है ।

औपचारिक शिक्षा और स्वाभावित सृजन

 शिक्षा का अर्थ सिर्फ औपचारिक संथाओं तक सीमित नहीं है अपितु वह ज्ञान है जो रचनाकार अपने परिवेश से अंतर्क्रिया के दौरान ग्रहण करता है । उसकी अभिव्यक्ति के रूपांतरण में कोई न कोई ऐसी विशेषता अवश्य दिखाई है जो कलाकार के व्यक्तित्व को चिन्हित कर सके । लेकिन सहज रूप से समाज और कला के गूढ़ सम्बन्ध को अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो बहुत से चित्रकारों , साहित्यकारों और संगीतकारों की अभिव्यक्ति में उनकी समकालीन व्यवस्था, राजनीतिक परिस्थितियां धर्म से प्रभवित मनःस्थिति, समाज की उन्नति -अवनति परिलक्षित होती हुई ज़रूर दिखाई देती । विशेषकर राजनैतिक और धार्मिक विषयों की प्रासंगिगता अवश्य दिखाई देती है; लेकिन ज़रूरी नहीं हर कलाकार चाहे वो किसी भी विधा से सम्बद्ध हो, की कला में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होगा, इसका ये अर्थ भी नहीं कि किसी भी अप्रिय घटना ,त्रासदी ,सामाजिक विद्रोह या आन्दोलन का लेशमात्र भी असर उसकी मनोदशा और अभिव्यक्ति पर नहीं होगा ;कभी कभी कुछ प्रभाव अपरोक्ष रूप से भी दिखाई पड़ते हैं जिन्हें बारीकी से परखने की ज़रुरत होती है। हाँ, ऐसा उन परिस्थितियों में संभव है जब कलाकार या तो स्वयं सामाजिक घटनाओं के प्रति उतना संवेदनशील न हो अथवा उदासीन हो या अभ्यास जनित रूपाकारों , शिल्प और अनुकृति को ही अपनी अभिव्यक्ति का उद्देश्य बना ले ।

प्रकृति और सृजन

सत्य तो ये है प्रकृति विभेद की प्रक्रिया में सभी मानव में सृजनात्मक गुणों का वितरण कभी भी समान नहीं होता, संभवतः यही एक मुख्य कारण है जिसकी वजह से हर कलाकार शिल्प और सुघड़ रूपाकारों को ही कलाभ्व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य मान लेता है,बाह्य रूप की सुघड़ता में भाव व्यंजना का आभाव ही उसकी रचना में अभ्व्यक्ति की शक्ति को क्षीण कर देता है और उसकी कलाकृति भाव संप्रेषित नहीं कर पाती। सजग और संवेदनशील कलाकार अपने अन्तः और बाह्य परिवेश के मध्य बहुत अच्छा सामंजस्य स्थापित कर लेता है और हर ज्वलंत घटना से उद्वेलित होकर सर्वप्रथम जीवन के मानवीय पक्ष से अपना गहन सम्बन्ध बनाता है । उसकी कृति में समाज की वेदना अपारदर्शी रहस्य की तरह नहीं बल्कि पारदर्शी प्रकाश पुंज की तरह मानस पटल पर छा जाती है । उनकी अभिव्यक्ति में भावावेश और तीव्र होकर मुखर होता जब समाज,देश या दुनिया में विनाशकारी प्रवृतियाँ अपने स्वार्थ के लिए समाज का दमन करती हैं और ऐसे समय में ही कलाकार और उसकी कला की परख हो जाती है । 

पूरे विश्व में देखा जा सकता कि जिन कलाकारों ने स्वार्थवश किसी राजनैतिक दबाव या राजसी वैभव की संतुष्टि के लिए कला सृजन किया है ,चाहे वो किसी भी विधा का कलाकार रहा हो,कभी पूर्ण स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ अपना रचना कर्म नहीं निभा सका,न ही अपनी प्रेरणा के अनुरूप विषयों का चयन कर सका;विवशता से परे कुछ ऐसे भी सृजनकर्ता हैं जो अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति को ही प्रकृति का वरदान मानते हैं और अपनी कला के साथ अन्याय नहीं करते ।इस संदर्भ में महान रूसी लेखक लिओ टॉलस्टॉय( 1828-19100) का उल्लेख करना अनिवार्य प्रतीत होता है । उनके अनुसार,” किसी व्यक्ति में वही भावना जागृत करना जिससे वह खुद अनुभव कर चुका है, चाहे उसका माध्यम रेखाएं ,रंग ,रूप ,ध्वनि अथवा शब्द कुछ भी हो ।कला कर्म वही है जब किसी एक की भावना समान रूप से दुसरे व्यक्ति में संप्रेषित हो सके। “राधा कमल मुखर्जी –” प्रत्येक समाज के अपने कला रूपों का अपना विशिष्ट चरित्र होता है और उसके सामाजिक सिद्धांत ही उसकी कला पर अपनी छाप छोड़ते हैं ।” किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति को अपनी विशिष्टता के साथ जन समूह में प्रसारित होने की अनिवार्यता है और समाज के बिना उसका कोई मूल्य नहीं ।

स्वीडेन के कर्ट कॉलमैन का कहना है कि वैदिक विचार से मूलतः सभी में रचनात्मक ऊर्जा और ज्ञान का स्रोत जन्म से निहित होता है,वेद किसी कला विधा की रचना प्रक्रिया पर सीधी तौर पर टिप्पणी नहीं करता बल्कि ये बताता है कि हर मानव में सहज सृजनात्मक ज्ञान प्राकृतिक रूप से मौजूद होता है और ये मानव का मौलिक स्वाभाव है । इसका अभिप्राय है कि सभी में अव्यक्त को व्यक्त करने का गुण जन्मजात होता है । मनुष्य एक सामजिक इकाई है और समाज के परिवेश में जिन अनुभवों से गुजरता है,उसे किसी न किसी रूप में व्यक्त ज़रूर करता है और प्रतिक्रिया का साधन तलाशता है लेकिन ये अभिव्यक्ति कला का रूप तभी लेती है जब वह अपने अनुभव को भाव प्रवणता के साथ कल्पना से गुम्फित बिम्बों में रूपांतरित करता है और मूर्त रूप देता है। सच तो ये है कि किसी भी चित्रित अभिव्यक्ति का कोई अर्थ नहीं अगर उसका कोई दृष्टा नहीं,संगीत का कोई मोल नहीं यदि कोई स्वरों की रसानुभूति करने वाला नहीं और किसी साहित्य की कोई सार्थकता नहीं अगर उसे कोई पढने वाला नहीं ; इसका तात्पर्य है कि जिस मानव समूह या समाज के बीच सृजन हो रहा है उसका अस्तित्व उसकी ग्रह्यता और सशक्त सम्प्रेषणता पर निर्भर करती है। इसीलिए कलाकार की रचना चाहे उसका विषय और विषय वस्तु कुछ भी हो, सहज रूप से समाज के लिए ही होती है और अपने समकालीन समाज की अवस्था और मनोवृत्ति को ही व्यक्त करती है ।

 उदहारण के तौर पर मैं यहाँ एक महान चित्रकार सोमनाथ होर (1921- 2006) का नाम अंकित करना चाहता हूँ जिन्होंने अपनी कृतियों में सामाजिक चेतना का अदम्य परिचय दिया है । स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान बंगाल के आकाल(1943) की भीषण त्रासदी से इस कलाकार का मन उद्द्वेलित हो उठा, समाज की विषम और दयनीय परिस्थिति और चारों ओर भूख से मरते लोगों की दशा से द्रवित होकर उन्होंने बहुत सारे रेखांकनों , चित्रों और मूर्तियों का निर्माण किया । उनके द्वारा रचित ‘ वूंड ‘ सीरीज और 1970 के दशक में बनाई गई मूर्तियाँ जो युद्ध और अकाल में सामाजिक विघटन को बहुत सशक्त ढंग से अभिव्यक्त करती हैं,का कला जगत में एक विशेष स्थान है । ऐसे कलाकारों की मिसाल बहुत है जिनकी चर्चा मैं इस श्रंखला के लेखों में आगे करूँगा ।कला का मौलिक रूप चाहे वो किसी भी विधा से जुड़ा हो, समाज और प्रकृति दोनों की परिधि से बहार नहीं जा सकती । बाह्य जगत का अनुभव चाहे वह किसी श्रोत से आया हो कलाकार की चेतना के सानिध्य में ही सत्य के सौंदर्य को अभिव्यक्त कर पाता है, अतः उस सौन्दर्य बोध का कोई अर्थ ही नहीं जो सहजता के साथ मानवीय मनोदशा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त न कर सके ।

 इटालियन विचारक बेनेदेत्तो क्रोसे के अनुसार अनुभूति की सहजता और शुद्धता के अनुकूल ही भाव संवेग सशक्त होते हैं इसीलिए आत्मानुभूति के पलों में सहज अनुभूति ही अभिव्यंजना बन जाती है । इसका अर्थ है कि अनुभूति अंतर्मन की सतह पर अचानक एक रहस्यमई प्रकाश की तरह चमक जाती है और वो दृष्टिगोचर न होकर आंतरिक भावना से सीधी जुड़ी होती है ।इसीलिए क्रोसे ने बाह्य जगत की अवहेलना करते हुए सिर्फ मानसिक प्रक्रिया और प्रज्ञा को ही प्राथमिक माना । लेकिन ये वक्तव्य बहुत सिद्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि बाह्य जगत की सक्रिय सत्ता के बिना आत्मबोध का प्रेरक तत्व किसी भी अभिव्यक्ति को भावावेग से वंचित कर देगा । समाज के सन्दर्भ में कला के सौदर्य बोध का अर्थ तभी विवेकपूर्ण और मानवीय हो सकता है जब वह अपने परिवेश के साथ समन्वय स्थापित कर सके,और अपनी कलात्मक भावाभिव्यक्ति से सम्प्रेषण की तरंगें प्रवाहित कर सके। किसी भी कलाकार के अंतस में जो अव्यक्त है उसकी व्यक्त सत्ता को स्थूल उपस्थिति की आवश्यकता होती ही है ,चाहे वो कोई भी विधा हो,ठीक वैसे ही जैसे स्वरों को कंठ की और उससे निकले संगीत के रसास्वादन के लिए कर्ण की । 

नोट — इस श्रंखला में अभी कई लेख अलग अलग संदर्भ में आगे प्रकाशित होंगे ।

समकालीन कला में अतिरेक भौतिकवाद (over materialistic attitude in contemporary art}


समकालीन कला में उभरती भौतिकवादी प्रवित्ति      

OVER  MATERIALISTIC ATTITUDE IN CONTEMPORARY ART) 

 
 



प्रकृति चेतन और जड़ की प्रमाणिक,संतुलित और सहज अभिव्यक्ति है जिसमें मानव अस्तित्व  की सतत  संघर्षमय  प्रक्रिया से  गुजर कर अपने अपने समाज से सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है और किसी न किसी रूप में अपने अनुभवों को व्यक्त करता है । सृजन की शक्ति प्रकृति प्रदत्त है क्योंकि किसी भी  सृजनकर्ता के लिए आज भी ये रहस्य है कि उसके बौद्धिक और आत्मिक विकास की प्रक्रिया में प्रकृति अपना योगदान और भूमिका क्यूँ और कैसे अदा करती है ! अनुभूति एक तरंग की तरह अचेतन  के गर्भ में कहीं न कहीं अपना प्रभाव संचयित कर अर्धचेतन में प्रसारित होती है और यथार्थ की अनुभवों को कलाकार की व्यक्तिगत प्रतिमा रूप में परिवर्तित कर व्यक्त होने का मार्ग खोजती है; अंतर मन में विकसित अव्यक्त प्रतिमा अपने नए रूप को व्यक्त करने के लिए जिन सोपानों और  अवरोधों से गुजरती है उसी को सृजन प्रक्रिया कह सकते हैं । मानसिक प्रतिमाओं  कलात्मक रूप पाने के लिए आत्मिक और बौद्धिक द्वंद्ध से गुजरना पड़ता है ।इस प्रकिया में मानसिक प्रतिमाओं का बनना और बिखर जाना और फिर संगठित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और कलाकार के भावावेश और मासिक अवस्था पर निर्भर करता है । 

 सृजन की सहज प्रक्रिया में हर स्तर पर कलाकार के मौलिक विचार, शिक्षा , पारिवारिक परिवेश , सामाजिक परिवेश , सहज  वृत्ति और अनुवांशिक गुणों का बहुत प्रभाव होता है, यही कारण है कि मानवीय दृष्टिकोण से कोई दृश्य,घटना अथवा विषय एक कलाकार को द्रवित कर देता है और दूसरे को नहीं । इसीलिए विभिन्न कलाकारों के आत्मबोध से उपजी कला के मापदंड अलग अलग होते हैं और कला की वो अपने अपने ढंग से व्याख्या करते हैं ।उदाहरण के तौर पर यदि कोई कलाकार किसी राजनैतिक संघटना से प्रभावित होता है तो उसके सामाजिक व्यवहार,विचार और सहज वृत्ति और चयन पर  परोक्ष अपरोक्ष रूप कुछ ऐसा ज़रूर प्रतीत होता है जो उसकी अभिव्यक्ति में प्रदर्शित होता है ।

ऑस्ट्रिया के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड का मानना है कि मानव मष्तिष्क अनेक कुंठाओं की रणभूमि होती है और मानव के मानसिक उद्भव और विकास में यौन चेतना किसी भी स्थिति में जन्म से विद्यमान रहती है ।एक तरह से सृजन द्वारा सौन्दर्यानुभूति का आधार भी यौन वृति ही है । इस मनोविश्लेषण के सिद्धांत के अनुसार मानव की ये मौलिक वृत्ति जो प्रजनन से सम्बंधित है वो सृजन का मूल करक है और यौन व्यापार ही रचनात्मकता को संचालित करता है । 

लेकिन जर्मन दार्शनिक  हीगल (१७७ओ- १८३१ ) प्रकृति को जड़ न  मानकर चित्त की उद्दीपन शक्ति मानते हैं । मानव मन में प्रकृति अपना विस्तार पाती है और स्वछन्द रूप धारण करके कला में परिवर्तित होती है । मुझे लगता है कि प्रकृति स्वयं में सर्वश्रेष्ठ और प्रधान सत्ता है पर उसकी  सुनियोजित प्रक्रिया में मानव की उत्पत्ति और उद्भव का भी कोई विशेष प्रयोजन ज़रूर होगा अन्यथा मूल प्रवृत्तियों पर निर्भर रहकर अभिव्यक्ति का परिमार्जन और संवर्धन  इतने रूपों में संभव न होता । कविता,कहानियां ,चित्र ,मूर्ती ,फिल्में ,गीत संगीत किसी भी विधा का विकास संभव ही न होता । उनका कथन है कि सौंदर्य के प्रति अगाध आकर्षण रखते हुए खुद को अभिव्यक्त करना ही कला है । लेकिन सौदर्य है क्या इसको प्रायः किसी ने वर्गीकृत करने का या उलेख करने का प्रयास किसी ने नहीं किया क्योंकि हर मानव मस्तिष्क के  लिए सौंदर्य बोध अर्थ बहुत वयक्तिक होता है ।

एक और जर्मन दार्शनिक इमनुअल कांट (१७२४ – १८०४ )- इनके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिकता एक ऐसी विशेषता है जो सौंदर्य के विशुद्ध परिणाम को प्राप्त कर सकती है । इसका अर्थ है कि किसी भी कलाभिव्यक्ति में व्यक्त भाव का सौन्दर्यबोध तभी संभव है । उन्होंने सौन्दर्यबोध से अनुभूत आनंद को बहुत विलक्षण माना है । इन्द्रिय और अतीन्द्रिय के मध्य सम्बन्ध ही सौंदर्य का प्रमाण होता है । अतः द्रष्टा और दृश्य के बीच स्थापित सामंजस्य से उपजी अनुभूति ही सौन्दर्यानुभूति  है । इसका अभिप्राय है कि ये  आनंद भौतिक सुख से ज्यादा विलक्षण है इसीलिए भौतिक सुख प्रायः बहुत वयक्तिक होता है । कहीं न कहीं वो मानते है कि दृष्टा के समक्ष प्रतुत अभिव्यक्ति की विशुद्धता  ही कलाकृति का  स्वाभाविक गुण है ।इस आदर्शवादी विचार के अनुसार कला की  अनुभूति का अतीन्द्रिय रूप जब  भौतिक रूपांतरण के बाद  इन्द्र्यजनित होकर एक सामंजस्य स्थापित करता है तो कलाकृति में सौंदर्य का अनुभव होता है । लेकिन सोंचने का विषय ये है कि क्या इस प्रक्रिया में  विशुद्ध सौन्दर्यबोध का होना व्यावहारिक और संभावी है ?

बेन्देत्तो क्रोचे (१८६६ – १९५२ ) इटली —  इनका कथन है कि आत्मा कि उद्भव अवस्था  में कामना , इच्छा और क्रिया और तीनो के एकात्म में आत्मभिव्यक्ति अपने रूप को ग्रहण करती है ।इसीलिए  कुछ व्यक्त करते समय कलाकार के भावसंवेगों के रूप में उसकी इच्छा और क्रिया की  ही अभिव्यति होती है और इसी से कलकार की आंतरिक गतिशीलता का पता चलता है।क्रोचे बहिर्जगत को स्वीकार नहीं करते लेकिन अनुभूत सत्य आन्तरिक भाव ही है और अगर उसका कोई स्थायित्व है तो वह बाह्य जगत के बिना संभव कैसे हो सकता है क्योंकि प्रकृति बिना संयोजन और संतुलन के कोई क्रिया नहीं करती ।

 संभवतः इस बात पर शायद ही किसी को संदेह हो रचनामक बोध  की गुणवत्ता उसे वरदान स्वरुप प्रकृति की ही  देन है । मानव के सामाजिक ,सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास में सिर्फ औपचारिक शिक्षा  की भूमिका ही नहीं होती बल्कि कला और साहित्य का भी अपना बहुत बड़ा योगदान होता है या यूँ कहें सिर्फ औपचारिक शिक्षा जिसे जीवन का अंतिम लक्ष्य वह बौद्धिक और व्यक्तित्व के परिमार्जन में अपनी सिर्फ छोटी सी ही भूमिका निभा पाती  है जिससे जीविका संचालित की जा सके । दुर्भाग्यवश शिक्षा प्रणाली में ऐसा कोई प्रयोजन प्रतीत नहीं होता जिसमें प्रकृति के आदर्शवाद से विकिसित आत्मबोध  और चिंतन की कोई विधा या दृष्टिकोण हो । सभी की तरह कलाकार भी एक सामाजिक प्राणी है और वह उसी परवेश में अंतर्क्रिया करता है , प्रेरणा प्राप्त करता और सृजन की प्रक्रिया में लग जाता है । ऐसी  प्रक्रिया की मनःस्थिति में मन में बनती बिगड़ती प्रतिमाओं  को कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है और इसका  प्रमुख कारण प्रकृति से विमुख होकर रचना कर्म करना है । प्रकृति के सानिध्य में चिंतन बौद्धिक और आत्मिक स्तर एक ऐसी सहज और उन्मुक्त शक्ति प्रदान करता है जिससे भावप्रवण मानसिक बिम्बों का निर्माण सृजन प्रक्रिया के दौरान बड़ी सहजता और प्रवाहमयी ढंग से होता है । उदाहरण के तौर पर यदि कोई चित्रकार किसी फूल को पेंट करता है और वह सिर्फ उसके बाह्य रूप रंग और सदृश्य पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर उसे चित्रित करता है तो इसका अर्थ ये हुआ कि उसकी व्यक्तिगत आत्मानुभूति  नहीं है, क्योंकि न ही उसने फूल प्रतीकात्मक अर्थ को महसूस किया न ही उस फूल  के चरित्र को । ये ऐसी स्थिति है कोई भी रचना जो आभासी यथार्थ के मोह से मुक्त नहीं हो पाती या किसी भी वस्तु या व्यक्ति को नये ढंग से रूपांतरित नहीं कर पाती, उसमें प्रकृति का उद्दात निहित नहीं होता । अति भौतिकवाद एक मनः स्थिति है जो अनावश्यक को तो अभिवक्ति को क्षीण करती है लेकिन बिना उसके अभिवक्ति संभव भी नहीं क्यूंकि स्थूल और अस्थूल का सम्बन्ध प्राकृतिक है ।सत्य अमूर्त होने के पश्चात् भी व्यक्त होने के लिए भौतिक सत्ता  में ही रूपांतरित होता है । ये भातिकता वह भौतिकता नहीं है जो लोभ से जन्म लेती है । कलाकार को उसकी आत्मिक शक्ति और मानवतावादी दृष्टि ही उसे इस मोह और अवांछित भौतिकवाद के भ्रम से बचा सकती है ।

 

Art universe and beautiful mind

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