Art universe and creativity,art and social consciousness , art education and its impact on society

कला चेतना और मानव समाज ( ART CONSCIOUSNESS AND HUMAN SOCIETY)

 


         
कला चेतना और मानव समाज

SILENCE OF TIME,OIL ON CANVAS ,72” X 48” BY SANJAY KUMAR SRIVASTAV

संसार में कोई भी देश ,समाज और युग ऐसा नहीं जिसमें राजनैतिक ,आर्थिक,धार्मिक और नस्लीय द्वन्द्ध न घटित हुआ हो और कलाकार उससे स्वाभाविक रूप से प्रभावित न हुआ हो । वह अपने समाज में अनुभूत तथ्यों , अभिव्यक्ति के स्वरुप, मानसिक -आध्यत्मिक चिंतन,समाज के प्रति अपने दायित्व , उत्थान और पतन, राजनैतिक आंदोलनों के प्रति सजग और सक्रिय न रहा हो । समाज में विभिन्न विचारधाराओं, आस्थाओं ,परम्पराओं से ऊपर उठकर किसी भी घटना-दुर्घटना , आन्दोलन या फिर राजनैतिक और सामाजिक प्रतिरोधों से उपजी अनुभूति को वह भावावेग के अनुसार व्यक्त करता है तो उसका व्यक्त करने का तरीका व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक हो जाता है । ये एक प्रमाणिक सत्य है कि कोई भी कलाकार जिस तरह की सभ्यता और संस्कृति के बीच पलता है,शिक्षित होता है और परिवेश में अंतर्क्रिया करता है, उसका उसके वैचारिक मंथन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है ;उसकी विशेष विषयों में रूचि, विशिष्ट शैली का विकास , रूपाकारों और बिम्बों की सहज निर्मिती ,आत्मबोध और कल्पना प्रक्रिया सब पर उसका असर देखा जा सकता है ।

औपचारिक शिक्षा और स्वाभावित सृजन

 शिक्षा का अर्थ सिर्फ औपचारिक संथाओं तक सीमित नहीं है अपितु वह ज्ञान है जो रचनाकार अपने परिवेश से अंतर्क्रिया के दौरान ग्रहण करता है । उसकी अभिव्यक्ति के रूपांतरण में कोई न कोई ऐसी विशेषता अवश्य दिखाई है जो कलाकार के व्यक्तित्व को चिन्हित कर सके । लेकिन सहज रूप से समाज और कला के गूढ़ सम्बन्ध को अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो बहुत से चित्रकारों , साहित्यकारों और संगीतकारों की अभिव्यक्ति में उनकी समकालीन व्यवस्था, राजनीतिक परिस्थितियां धर्म से प्रभवित मनःस्थिति, समाज की उन्नति -अवनति परिलक्षित होती हुई ज़रूर दिखाई देती । विशेषकर राजनैतिक और धार्मिक विषयों की प्रासंगिगता अवश्य दिखाई देती है; लेकिन ज़रूरी नहीं हर कलाकार चाहे वो किसी भी विधा से सम्बद्ध हो, की कला में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होगा, इसका ये अर्थ भी नहीं कि किसी भी अप्रिय घटना ,त्रासदी ,सामाजिक विद्रोह या आन्दोलन का लेशमात्र भी असर उसकी मनोदशा और अभिव्यक्ति पर नहीं होगा ;कभी कभी कुछ प्रभाव अपरोक्ष रूप से भी दिखाई पड़ते हैं जिन्हें बारीकी से परखने की ज़रुरत होती है। हाँ, ऐसा उन परिस्थितियों में संभव है जब कलाकार या तो स्वयं सामाजिक घटनाओं के प्रति उतना संवेदनशील न हो अथवा उदासीन हो या अभ्यास जनित रूपाकारों , शिल्प और अनुकृति को ही अपनी अभिव्यक्ति का उद्देश्य बना ले ।

प्रकृति और सृजन

सत्य तो ये है प्रकृति विभेद की प्रक्रिया में सभी मानव में सृजनात्मक गुणों का वितरण कभी भी समान नहीं होता, संभवतः यही एक मुख्य कारण है जिसकी वजह से हर कलाकार शिल्प और सुघड़ रूपाकारों को ही कलाभ्व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य मान लेता है,बाह्य रूप की सुघड़ता में भाव व्यंजना का आभाव ही उसकी रचना में अभ्व्यक्ति की शक्ति को क्षीण कर देता है और उसकी कलाकृति भाव संप्रेषित नहीं कर पाती। सजग और संवेदनशील कलाकार अपने अन्तः और बाह्य परिवेश के मध्य बहुत अच्छा सामंजस्य स्थापित कर लेता है और हर ज्वलंत घटना से उद्वेलित होकर सर्वप्रथम जीवन के मानवीय पक्ष से अपना गहन सम्बन्ध बनाता है । उसकी कृति में समाज की वेदना अपारदर्शी रहस्य की तरह नहीं बल्कि पारदर्शी प्रकाश पुंज की तरह मानस पटल पर छा जाती है । उनकी अभिव्यक्ति में भावावेश और तीव्र होकर मुखर होता जब समाज,देश या दुनिया में विनाशकारी प्रवृतियाँ अपने स्वार्थ के लिए समाज का दमन करती हैं और ऐसे समय में ही कलाकार और उसकी कला की परख हो जाती है । 

पूरे विश्व में देखा जा सकता कि जिन कलाकारों ने स्वार्थवश किसी राजनैतिक दबाव या राजसी वैभव की संतुष्टि के लिए कला सृजन किया है ,चाहे वो किसी भी विधा का कलाकार रहा हो,कभी पूर्ण स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ अपना रचना कर्म नहीं निभा सका,न ही अपनी प्रेरणा के अनुरूप विषयों का चयन कर सका;विवशता से परे कुछ ऐसे भी सृजनकर्ता हैं जो अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति को ही प्रकृति का वरदान मानते हैं और अपनी कला के साथ अन्याय नहीं करते ।इस संदर्भ में महान रूसी लेखक लिओ टॉलस्टॉय( 1828-19100) का उल्लेख करना अनिवार्य प्रतीत होता है । उनके अनुसार,” किसी व्यक्ति में वही भावना जागृत करना जिससे वह खुद अनुभव कर चुका है, चाहे उसका माध्यम रेखाएं ,रंग ,रूप ,ध्वनि अथवा शब्द कुछ भी हो ।कला कर्म वही है जब किसी एक की भावना समान रूप से दुसरे व्यक्ति में संप्रेषित हो सके। “राधा कमल मुखर्जी –” प्रत्येक समाज के अपने कला रूपों का अपना विशिष्ट चरित्र होता है और उसके सामाजिक सिद्धांत ही उसकी कला पर अपनी छाप छोड़ते हैं ।” किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति को अपनी विशिष्टता के साथ जन समूह में प्रसारित होने की अनिवार्यता है और समाज के बिना उसका कोई मूल्य नहीं ।

स्वीडेन के कर्ट कॉलमैन का कहना है कि वैदिक विचार से मूलतः सभी में रचनात्मक ऊर्जा और ज्ञान का स्रोत जन्म से निहित होता है,वेद किसी कला विधा की रचना प्रक्रिया पर सीधी तौर पर टिप्पणी नहीं करता बल्कि ये बताता है कि हर मानव में सहज सृजनात्मक ज्ञान प्राकृतिक रूप से मौजूद होता है और ये मानव का मौलिक स्वाभाव है । इसका अभिप्राय है कि सभी में अव्यक्त को व्यक्त करने का गुण जन्मजात होता है । मनुष्य एक सामजिक इकाई है और समाज के परिवेश में जिन अनुभवों से गुजरता है,उसे किसी न किसी रूप में व्यक्त ज़रूर करता है और प्रतिक्रिया का साधन तलाशता है लेकिन ये अभिव्यक्ति कला का रूप तभी लेती है जब वह अपने अनुभव को भाव प्रवणता के साथ कल्पना से गुम्फित बिम्बों में रूपांतरित करता है और मूर्त रूप देता है। सच तो ये है कि किसी भी चित्रित अभिव्यक्ति का कोई अर्थ नहीं अगर उसका कोई दृष्टा नहीं,संगीत का कोई मोल नहीं यदि कोई स्वरों की रसानुभूति करने वाला नहीं और किसी साहित्य की कोई सार्थकता नहीं अगर उसे कोई पढने वाला नहीं ; इसका तात्पर्य है कि जिस मानव समूह या समाज के बीच सृजन हो रहा है उसका अस्तित्व उसकी ग्रह्यता और सशक्त सम्प्रेषणता पर निर्भर करती है। इसीलिए कलाकार की रचना चाहे उसका विषय और विषय वस्तु कुछ भी हो, सहज रूप से समाज के लिए ही होती है और अपने समकालीन समाज की अवस्था और मनोवृत्ति को ही व्यक्त करती है ।

 उदहारण के तौर पर मैं यहाँ एक महान चित्रकार सोमनाथ होर (1921- 2006) का नाम अंकित करना चाहता हूँ जिन्होंने अपनी कृतियों में सामाजिक चेतना का अदम्य परिचय दिया है । स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान बंगाल के आकाल(1943) की भीषण त्रासदी से इस कलाकार का मन उद्द्वेलित हो उठा, समाज की विषम और दयनीय परिस्थिति और चारों ओर भूख से मरते लोगों की दशा से द्रवित होकर उन्होंने बहुत सारे रेखांकनों , चित्रों और मूर्तियों का निर्माण किया । उनके द्वारा रचित ‘ वूंड ‘ सीरीज और 1970 के दशक में बनाई गई मूर्तियाँ जो युद्ध और अकाल में सामाजिक विघटन को बहुत सशक्त ढंग से अभिव्यक्त करती हैं,का कला जगत में एक विशेष स्थान है । ऐसे कलाकारों की मिसाल बहुत है जिनकी चर्चा मैं इस श्रंखला के लेखों में आगे करूँगा ।कला का मौलिक रूप चाहे वो किसी भी विधा से जुड़ा हो, समाज और प्रकृति दोनों की परिधि से बहार नहीं जा सकती । बाह्य जगत का अनुभव चाहे वह किसी श्रोत से आया हो कलाकार की चेतना के सानिध्य में ही सत्य के सौंदर्य को अभिव्यक्त कर पाता है, अतः उस सौन्दर्य बोध का कोई अर्थ ही नहीं जो सहजता के साथ मानवीय मनोदशा को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त न कर सके ।

 इटालियन विचारक बेनेदेत्तो क्रोसे के अनुसार अनुभूति की सहजता और शुद्धता के अनुकूल ही भाव संवेग सशक्त होते हैं इसीलिए आत्मानुभूति के पलों में सहज अनुभूति ही अभिव्यंजना बन जाती है । इसका अर्थ है कि अनुभूति अंतर्मन की सतह पर अचानक एक रहस्यमई प्रकाश की तरह चमक जाती है और वो दृष्टिगोचर न होकर आंतरिक भावना से सीधी जुड़ी होती है ।इसीलिए क्रोसे ने बाह्य जगत की अवहेलना करते हुए सिर्फ मानसिक प्रक्रिया और प्रज्ञा को ही प्राथमिक माना । लेकिन ये वक्तव्य बहुत सिद्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि बाह्य जगत की सक्रिय सत्ता के बिना आत्मबोध का प्रेरक तत्व किसी भी अभिव्यक्ति को भावावेग से वंचित कर देगा । समाज के सन्दर्भ में कला के सौदर्य बोध का अर्थ तभी विवेकपूर्ण और मानवीय हो सकता है जब वह अपने परिवेश के साथ समन्वय स्थापित कर सके,और अपनी कलात्मक भावाभिव्यक्ति से सम्प्रेषण की तरंगें प्रवाहित कर सके। किसी भी कलाकार के अंतस में जो अव्यक्त है उसकी व्यक्त सत्ता को स्थूल उपस्थिति की आवश्यकता होती ही है ,चाहे वो कोई भी विधा हो,ठीक वैसे ही जैसे स्वरों को कंठ की और उससे निकले संगीत के रसास्वादन के लिए कर्ण की । 

नोट — इस श्रंखला में अभी कई लेख अलग अलग संदर्भ में आगे प्रकाशित होंगे ।

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